प्रिय मित्रो ;
नमस्कार .
आज सोचा की दुखो का मूल कारण क्या है ,जिनके वजह से सारे मनुष्य जाती को दुःख भोगना पड़ता है ....तो ये समझ में आया की दुखो का मूल कारण सिर्फ और सिर्फ दो ही है - एक तो अपेक्षा और दूसरी उपेक्षा !!! सारे संसार में उत्पन्न हुए दुखो का यही दो कारण है या तो हम किसी से बहुत से विषय और वासनाओ की अपेक्षा कर लेते है और या तो हम किसी की उपेक्षा करते है ...और इसका उल्टा भी है जो दुःख देता है ....या तो कोई हमसे अपेक्षा कर लेता है या हम किसी की उपेक्षा कर लेते है ........ अपेक्षा सिर्फ आसक्ति और विषय -वासना और चाहत और needs के amplification की वजह से उत्पन्न होती है और जब हमारी चाहते पूरी नहीं हो पाती है तो हमें दुःख पहुँचता है ...चाहे वो फिर किसी भी form में हो ..और अपेक्षाए होना या उनकी आशाये रखना ,मानव मन की स्वाभाविक कमजोरी है ...लेकिन यदि हम ये सोच ले --किसी भी आशा के पहले या अपेक्षा के पहले की यदि ये आशाये या अपेक्षाए पूरी न हो तो हमें दुखी नहीं होना है बल्कि एक नयी ऊर्जा के साथ जीवन को गतिशील रखना है ...निरंतरता बनायीं रखनी है ....क्योंकि अक्सर सपने पूरे होते ही है .....भले ही थोड़ी देर लगे .... साथ ही हमें ये भी कोशिश करना होंगा की यदि कोई हमसे किसी भी प्रकार की अपेक्षा रखता है तो उसे यथासंभव पूरा करे... क्योंकि दूसरो के सपने जो आपसे जुड़े हुए है उन्हें यथासंभव पूरा करने की एक human responsibility हमारी भी बनती है ......
उपेक्षा भी इसी तरह दुःख देती है ...यदि कोई भी किसी भी कारण की वजह से हमारी उपेक्षा करता है तो हमें दुःख होता है ,इसी तरह से यदि हम किसी की उपेक्षा करते है तो वो दुखी होता है .... उपेक्षा directly प्रेम और मित्रता के भाव का अपमान है .....शब्दों का सही इस्तेमाल उपेक्षा को कटुता से बचा सकता है ....लेकिन जहाँ तक संभव हो सके किसी की उपेक्षा नहीं करना चाहिए .....
मानव जन्म इतना सुन्दर है की उसे दुखो से लाद कर दुखी नहीं करना चाहिए ....
प्रणाम !!!