Monday, March 25, 2013

|| गीता में नवधा भक्ति ||


भक्ति ही एक ऐसा साधन है जिसको सभी सुगमता से कर सकते हैं और जिसमें सभी मनुष्यों का अधिकार है | इस कलिकाल में तो भक्ति के समान आत्मोद्धार के लिए दूसरा कोई सुगम उपाय है ही नहीं ; क्योंकि ज्ञान , योग , तप , त्याग आदि इस समय सिद्ध होने बहुत ही कठिन है | संसार में धर्म को मानने वाले जितने लोग हैं उनमें अधिकाँश ईश्वर - भक्ति को ही पसंद करते हैं | जो सतयुग में श्रीहरी के रूप में , त्रेतायुग में श्रीराम रूप में , द्वापरयुग में श्रीकृष्ण रूप में प्रकट हुए थे , उन प्रेममय नित्य अविनाशी , सर्वव्यापी हरी को ईश्वर समझना चाहिए | महऋषि शांडिल्य ने कहा है ' ईश्वर में परम अनुराग [ प्रेम ] ही भक्ति है |' देवर्षि नारद ने भी भक्ति - सूत्र में कहा है ' उस परमेश्वर में अतिशय प्रेमरूपता ही भक्ति है और वह अमृतरूप है |' भक्ति शब्द का अर्थ सेवा होता है | प्रेम सेवा का फल है और भक्ति के साधनों की अंतिम सीमा है | जैसे वृक्ष की पूर्णता और गौरव फल आने पर ही होता है इसी प्रकार भक्ति की पूर्णता और गौरव भगवान में परम प्रेम होने में ही है | प्रेम ही उसकी पराकाष्ठा है और प्रेम के ही लिए सेवा की जाती है | इसलिए वास्तव में भगवान में अनन्य प्रेम का होना ही भक्ति है |
भक्ति के प्रधान दो भेद हैं - एक साधनरूप , जिसको वैध और नवधा के नाम से भी कहा है और दूसरा साध्यरूप , जिसको प्रेमा - प्रेमलक्षणा आदि नामों से कहा है | इनमें नवधा साधनरूप है और प्रेम साध्य है | श्रीमद्भागवत में प्रह्लादजी ने कहा है ' भगवान विष्णु के नाम , रूप , गुण और प्रभाव आदि का श्रवण , कीर्तन , और स्मरण तथा भगवान की चरणसेवा , पूजन और वन्दन एवं भगवान में दासभाव , सखाभाव और अपने को समर्पण कर देना - यह नौ प्रकार की भक्ति है |' इस उपर्युक्त नवधा भक्ति में से एक का भी अच्छी प्रकार अनुष्ठान करने पर मनुष्य परम पद को प्राप्त हो जाता है ; फिर जो नवों का अच्छी प्रकार से अनुष्ठान करने वाला है उसके कल्याण में तो कहना ही क्या है ?
[ १ ] श्रवण - भगवान के प्रेमी भक्तों द्वारा कथित भगवान के नाम , रूप , गुण , प्रभाव , लीला , तत्त्व , और रहस्य की अमृतमयी कथाओं का श्रधा और प्रेमपूर्वक श्रवण करना एवं प्रेम में मुग्ध हो जाना श्रवणभक्ति का स्वरूप है | गीता [ श्लोक ४ / ३४ ; १३ / २५ ] में भगवान कहते हैं ' हे अर्जुन ! उस ज्ञान को तू समझ ; श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य के पास जाकर उनको दंडवत प्रणाम करने से , उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से तत्त्व को जानने वाले वे ज्ञानी - महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे |'
[ २ ] कीर्तन - भगवान के नाम , रूप , गुण , प्रभाव , चरित्र , तत्त्व और रहस्य का श्रधा और प्रेमपूर्वक उच्चारण करते - करते शरीर में रोमांच , कंठावरोध , अश्रुपात , हृदय की प्रफुल्लता , मुग्धता आदि का होना कीर्तन - भक्ति का स्वरूप है | गीता [ श्लोक ९ / ३० , ३१ ; १८ / ६८ - ६९ ; ] में कीर्तन - भक्ति का महत्त्व बताया गया है |
[ ३ ] स्मरण - भगवान को स्मरण करना ही भक्ति के ' प्राण ' है | केवल स्मरण - भक्ति से सारे पाप , विघ्न , अवगुण , और दुखों का अत्यंत अभाव हो जाता है | गीता [ श्लोक ६ / ३० ; ८ / ७ - ८ ; ८ / १४ ; ९ / २२ ; १२ / ६ - ८ ; १८ / ५७ - ५८ ] में भगवान ने स्मरण - भक्ति का ही महत्त्व बताया है |
[ ४ ] पाद सेवन - जिनके ध्यान से पापराशि नष्ट हो जाती है , भगवान के उन चरणकमलों का चिरकाल तक चिंतन करना चाहिए | भगवान की चरणकमल रुपी नौका ही संसार - सागर से पार उतारनेवाली है |
[ ५ ] अर्चन - जो लोग इस संसार में भगवान की अर्चना - पूजा करते हैं वे भगवान के अविनाशी आनंदस्वरूप परमपद को प्राप्त हो जाते हैं | गीता [ श्लोक १८ / ४६ ] में बताया है की भगवान की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है | गीता [ श्लोक ९ / २६ ] में भगवान कहते हैं ' शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ पत्र , पुष्प , फल और जल आदि मैं सगुणरूप से प्रकट होकर प्रीतसहित खाता हूँ |'
[ ६ ] वन्दन - समस्त चराचर भूतों को परमात्मा का स्वरूप समझकर शरीर या मन से प्रणाम करना और ऐसा करते हुए भगवतप्रेम में मुग्ध होना वन्दन - भक्ति है | गीता [ श्लोक ११ / ४० ] में इसका स्वरूप बताया गया है | [ ७ ] दास्य - भगवान के गुण , तत्त्व , रहस्य और प्रभाव को जानकर श्रधा - प्रेमपूर्वक उनकी सेवा करना और उनकी आज्ञा का पालन करना दास्य -भक्ति है | [ ८ ] सख्य - भगवान के तत्त्व , रहस्य , महिमा को समझकर मित्र भाव से उनमें प्रेम करना और प्रसन्न रहना [ श्लोक ४ / ३ ; १८ / ६४ ] सख्य - भक्ति है | [ ९ ] आत्मनिवेदन - जिस मनुष्य ने भगवान का आश्रय लिया है उसका अंत:करण शुद्ध हो जाता है एवं वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है [ श्लोक ७ / १४ ; ९ / ३२ ; ९ / ३४ ; १८ / ६२ ; १८ / ६६ ] आदि में शरणागति का महत्त्व बताया गया है | || इति ||

Sunday, March 17, 2013

ज़िन्दगी


मेरे आत्मन ,
सोचिये तो .....!!




ईश्वर


प्रिय आत्मन ;
चाणक्य ने कहा है कि ईश्वर मूर्तियों में नहीं , बल्कि आपकी भावनाओं में रहता है और आत्‍मा आपका मन्दिर है। 
आईये इन शब्दों को मन से ग्रहण करे और जीवन को सुखमय बनाए .
प्रणाम 
आपका सेवक 
विजय