Wednesday, February 20, 2013

ईश्वर का स्वरूप

एक महात्मा से किसी ने पूछा- 'ईश्वर का स्वरूप क्या है?' 

महात्मा ने उसी से पूछ दिया-'तुम अपना स्वरूप जानते हो?' 

वह बोला- 'नहीं जानता।' 

तब महात्मा ने कहा- 'अपने स्वरूप को जानते नहीं जो साढ़े तीन हाथ के शरीर में 'मैं-मैं कर रहा है और संपूर्ण विश्व के अधिष्ठान परमात्मा को जानने चले हो। पहले अपने को जान लो, तब परमात्मा को तुरंत जान जाओगे। 

एक व्यक्ति एक वस्तु को दूरबीन से देख रहा है। यदि उसे यह नहीं ज्ञान है कि वह यंत्र वस्तु का आकार कितना बड़ा करके दिखलाता है, तो उसे वस्तु का आकार कितना बड़ा करके दिखलाता है, तो उसे वस्तु के सही स्वरूप का ज्ञान कैसे होगा? 


अतः अपने यंत्र के विषय में पहले जानना आवश्यक है। हमारा ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा संसार दिखलाता है। हम यह नहीं जानते कि वह दिखाने वाला हमें यह संसार यथावत्‌ ही दिखलाता है या घटा-बढ़ाकर या विकृत करके दिखलाता है। 

गुलाब को नेत्र कहते हैं- 'यह गुलाबी है।' नासिका कहती है- 'यह इसमें एक प्रिय सुगंध है।' त्वचा कहती है- 'यह कोमल और शीतल है।' चखने पर मालूम पड़ेगा कि इसका स्वाद कैसा है। पूरी बात कोई इंद्री नहीं बतलाती। सब इन्द्रियां मिलकर भी वस्तु के पूरे स्वभाव को नहीं बतला पातीं।

स्वामी प्रेमानन्द पुरी 

तुम्हारा जीवन तुम पर निर्भर है.....ओशो


तुम्हारा जीवन तुम पर निर्भर है.....ओशो

न कोई कर्म, न कोई किस्मत, न कोई ऐतिहासिक आदेश- तुम्हारा जीवन तुम पर निर्भर है। उत्तरदायी ठहराने के लिए कोई परमात्मा नहीं, सामाजिक पद्धति या सिद्धांत नहीं है। ऐसी स्थिति में तुम इसी क्षण सुख में रह सकते हो या दुख में।
स्वर्ग अथवा नरक कोई ऐसे स्थान नहीं हैं जहाँ तुम मरने के बाद पहुँच सको, वे अभी इसी क्षण की संभावनाएँ हैं। इस समय कोई व्यक्ति नरक में हो सकता है, अथवा स्वर्ग में। तुम नरक में हो सकते हो और तुम्हारे पड़ोसी स्वर्ग में हो सकते हैं।

एक क्षण में तुम नरक में हो सकते हो और दूसरे ही क्षण स्वर्ग में। जरा नजदीक से देखो, तुम्हारे चारों ओर का वातावरण परिवर्तित होता रहता है। कभी-कभी यह बहुत बादलों से घिरा होता है और प्रत्येक चीज धूमिल और उदास दिखाई देती है और कभी-कभी धूप खिली होती है तो बहुत सुंदर और आनंदपूर्ण लगता है।

ओशो