Thursday, May 30, 2013

एक बोध कथा



जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी - जल्दी करने की इच्छा होती है , सब कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है , और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं , उस समय ये बोध कथा , " काँच की बरनी और दो कप चाय " हमें याद आती है । 
दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं ... 
उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बडी़ बरनी ( जार ) टेबल पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची ... उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या बरनी पूरी भर गई ? हाँ ... आवाज आई ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे - छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये h धीरे - धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी , समा गये , फ़िर से प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्या अब बरनी भर गई है , छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ ... कहा अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले - हौले उस बरनी में रेत डालना शुरु किया , वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई , अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्यों अब तो यह बरनी पूरी भर गई ना ? हाँ .. अब तो पूरी भर गई है .. सभी ने एक स्वर में कहा .. सर ने टेबल के नीचे से चाय के दो कप निकालकर उसमें की चाय जार में डाली , चाय भी रेत के बीच स्थित थोडी़ सी जगह में सोख ली गई ... 
प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया – 
इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो .... 
टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान , परिवार , बच्चे , मित्र , स्वास्थ्य और शौक हैं , 
छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी , कार , बडा़ मकान आदि हैं , और 
रेत का मतलब और भी छोटी - छोटी बेकार सी बातें , मनमुटाव , झगडे़ है .. 
अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती , या कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं भर पाते , रेत जरूर आ सकती थी ... 
ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है ... यदि तुम छोटी - छोटी बातों के पीछे पडे़ रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये अधिक समय नहीं रहेगा ... मन के सुख के लिये क्या जरूरी है ये तुम्हें तय करना है । टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले करो , वही महत्वपूर्ण है ... पहले तय करो कि क्या जरूरी है ... बाकी सब तो रेत है .. 
छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे .. अचानक एक ने पूछा , सर लेकिन आपने यह नहीं बताया कि " चाय के दो कप " क्या हैं ? प्रोफ़ेसर मुस्कुराये , बोले .. मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया ... 
इसका उत्तर यह है कि , जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे , लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये । 

Sunday, May 5, 2013

कबीर ...!!



कस्तूरी कुँडली बसै, मृग ढूँढे बन माहिँ।
ऐसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहिँ॥

प्रेम ना बाड़ी उपजे, प्रेम ना हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रुचे, सीस देई लै जाय॥

माला फेरत जुग भया, मिटा ना मन का फेर।
कर का मन का छाड़ि के, मन का मनका फेर॥

माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया सरीर।
आसा तृष्णा ना मुई, यों कह गये कबीर॥

झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।
खलक चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद॥

वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारण, साधु धरा शरीर॥

साधु बड़े परमारथी, धन जो बरसै आय।
तपन बुझावे और की, अपनो पारस लाय॥

सोना, सज्जन, साधु जन, टुटी जुड़ै सौ बार।
दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एकै धकै दरार॥

जिहिं धरि साध न पूजिए, हरि की सेवा नाहिं।
ते घर मरघट सारखे, भूत बसै तिन माहिं॥

मूरख संग ना कीजिए, लोहा जल ना तिराइ।
कदली, सीप, भुजंग-मुख, एक बूंद तिहँ भाइ॥

तिनका कबहुँ ना निन्दिए, जो पायन तले होय।
कबहुँ उड़न आँखन परै, पीर घनेरी होय॥

बोली एक अमोल है, जो कोइ बोलै जानि।
हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आनि॥

ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को सीतल करे, आपहुँ सीतल होय॥

लघुता ते प्रभुता मिले, प्रभुता ते प्रभु दूरी।
चींटी लै सक्कर चली, हाथी के सिर धूरी॥

निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय॥

मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं।
मुकताहल मुकता चुगै, अब उड़ि अनत ना जाहिं॥

शिक्षा ....!!


सत्य के दिशा में सबसे बड़ा अपराध तो तब हो जाता है , जब हम सत्य के संबंध में रूढ़ धारणाओं को बच्चो के ऊपर थोपने का आग्रह करते है ! यह अत्यंत घातक दुराग्रह है ! 

परमात्मा और आत्मा के संबंध में विश्वास या अविश्वास बच्चो पर थोपे जाते है ! गीता, कुरान, कृष्ण , महावीर उन पर थोपे जाते है ! इस भांति सत्य के संबंध में उनकी जिज्ञासा पैदा ही नही हो पाती है ! वे स्वयं के प्रश्नों को ही उपलब्ध नही हो पाते है , और तब स्वयं के समाधानों को खोज लेने का तो सवाल ही नही है ! 

बने-बनाये तैयार समाधानों को ही वे फिर जीवनभर दुहराते रहते है ! उनकी स्थिति तोतो के जैसी हो जाती है ! पुनरुक्ति चिंतन नही है ! पुनरुक्ति तो जड़ता है ! सत्य किसी और से नही पाया जा सकता है, उसे तो स्वयं ही खोजना और पाना होता है ! 

---- ओशो