Wednesday, November 27, 2013

मित्रता

मेरे प्रिय आत्मन .
नमस्कार ;

मित्रता ज़िन्दगी की सबसे अच्छी नेमत होती है .

अच्छी मित्रता कीजिये और जीवन भर इस मित्रता का साथ निभाये .

कहीं मैंने पढ़ा था " BE SLOW IN CHOOSING A FRIENDS AND SLOWER IN CHANGING " सो जीवन में सबसे गहरा रिश्ता मित्रता का ही है .

और आप सभी मेरे मित्र है .आपकी मित्रता को सलाम !

आपका
अपना
विजय


Wednesday, August 28, 2013

मनमोहना . कृष्णा कृष्णा

कृष्ण असीम है. उन्हें जानना इस जन्म में सिद्ध नहीं होंगा , हाँ अगर कृष्ण की चेतना से कुछ बूँद हमें अगर प्राप्त हो जाए तो फिर बात ही क्या ! जीवन ही धन्य हो जायेंगा .

Saturday, August 24, 2013

शिक्षा

प्रत्‍येक मनुष्‍य जिससे मैं मिलता हूं किसी न किसी रीत में / व्यवहार में / गुण में / ज़िन्दगी जीने के ढंग में / कला में / मुझसे श्रेष्‍ठ होता है इसलिए मैं उससे कुछ शिक्षा लेता हूं !

Wednesday, August 21, 2013

माँ

प्रिय मित्रो ;

माँ से बढकर कोई नहीं मित्रो . माँ ही ईश्वर का सच्चा स्वरुप है .
माँ है तो हम है .
माँ है तो जीवन है .
माँ है तो धरा है .
माँ है तो ईश्वर है. 


प्रणाम माँ 







विजय

Friday, August 2, 2013

क्षमा / माफ़ी

मेरे आत्मन ,
आप सभी को मेरे प्रणाम

माफ़ करना  इस संसार का सबसे श्रेष्ठ कार्य है . यदि आप किसी को क्षमा करते है तो इससे बड़ा व्यगतीगत दान , मेरी नज़र में कोई नहीं है .

माफ़ी देने से आप खुद को ही बेहतर करते/ पाते  है . दुसरो की दगाबाजी , धोखेबाजी , या किसी भी अन्य प्रकार  के छल, सिर्फ आपको मानसिक संताप देते है , जब तक कि आप उन सभी दुखो के लिए उस व्यक्ति को क्षमा नहीं कर देते.

आईये . एक स्वस्थ मन ,तन के लिए हम क्षमा का दान करे. उसकी राह पकडे.

धन्यवाद

ह्रदय से प्रेम भरे अलिंगनो के साथ आप सभी का .

विजय


Friday, July 26, 2013

गलतियां

मेरे प्रिय आत्मन ;

नमस्कार , जैसे की अमिताभ बच्चन ने एक बार कहा था कि दुसरो की गलतियों से सीखे. क्योंकि हम इतने दिन नहीं जिंदा रह सकते है की उतनी गलतियां कर सके. आज की देशना यही है कि दोस्तों; हम ये समझे कि इस छोटे से जीवन में सीखना बहुत जरुरी है . और सीखने के लिए गलतियां  बहुत जरुरी है . लेकिन हम अपने छोटे से जीवन में इतनी गलतियां तो नहीं कर सकते की उनसे सब कुछ सीख सके. हाँ , एक बात हो सकती है की हम दुसरो की गलतियों से सीखे तब ही हम अपने जीवन को संवार सकते है . और अपने जीवन को संवारना किसे अच्छा नहीं लगेंगा . गलतियां हम सभी करते है . लेकिन सीखते बहुत कम है. इसलिए सीखिए . जीवन में सीखना ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण है.

प्रणाम

आपका
स्वामी प्रेम विजय

Tuesday, July 23, 2013

हनुमान चालीसा


हनुमान चालीसा



श्री गुरू चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि,
बरनउं रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि ॥1॥

बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन कुमार,
बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेस बिकार ॥2॥

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर,
जय कपीस तिहुं लोक उजागर ॥3॥
राम दूत अतुलित बल धामा,
अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा ॥4॥
महावीर बिक्रम बजरंगी,
कुमति निवार सुमति के संगी ॥5॥
कंचन बरन बिराज सुबेसा,
कानन कुंडल कुँचित केसा ॥6॥
हाथ बज्र और ध्वजा बिराजे,
काँधे मूंज जनेऊ साजे ॥7॥
शंकर सुवन केसरी नंदन,
तेज प्रताप महा जगवंदन ॥8॥
विद्यावान गुनि अति चातुर,
राम काज करिबे को आतुर ॥9॥
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया,
राम लखन सीता मन बसिया ॥10॥
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा,
विकट रूप धरि लंक जरावा ॥11॥
भीम रूप धरि असुर सँहारे,
रामचंद्र के काज सवाँरे ॥12॥
लाय संजीवन लखन जियाए,
श्री रघुबीर हरषि उर लाए ॥13॥
रघुपति किन्ही बहुत बड़ाई,
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ॥14॥
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं,
अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं ॥15॥
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा,
नारद सारद सहित अहीसा ॥16॥
जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते,
कवि कोविद कहि सकें कहाँ ते ॥17॥
तुम उपकार सुग्रीवहिं किन्हा,
राम मिलाय राज पद दीन्हा ॥18॥
तुम्हरो मंत्र विभीषन माना,
लंकेश्वर भये सब जग जाना ॥19॥
जुग सहस्त्र जोजन पर भानू,
लील्यो ताहि मधुर फ़ल जानू ॥20॥
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं,
जलधि लाँघि गए अचरज नाहीं ॥21॥
दुर्गम काज जगत के जेते,
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ॥22॥
राम दुआरे तुम रखवारे,
होत ना आज्ञा बिनु पैसारे ॥23॥
सब सुख लहै तुम्हारी शरना,
तुम रक्षक काहु को डरना ॥24॥
आपन तेज सम्हारो आपै,
तीनों लोक हाँक तै कांपै ॥25॥
भूत पिशाच निकट नहि आवै,
महाबीर जब नाम सुनावै ॥26॥
नासै रोग हरे सब पीरा,
जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥27॥
संकट तै हनुमान छुडावै,
मन करम वचन ध्यान जो लावै ॥28॥
सब पर राम तपस्वी राजा,
तिन के काज सकल तुम साजा ॥29॥
और मनोरथ जो कोई लावै,
सोइ अमित जीवन फ़ल पावै ॥30॥
चारों जुग परताप तुम्हारा,
है परसिद्ध जगत उजियारा ॥31॥
साधु संत के तुम रखवारे,
असुर निकंदन राम दुलारे ॥32॥
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता,
अस वर दीन्ह जानकी माता ॥33॥
राम रसायन तुम्हरे पासा,
सदा रहो रघुपति के दासा ॥34॥
तुम्हरे भजन राम को पावै,
जनम जनम के दुख बिसरावै ॥35॥
अंतकाल रघुवरपूर जाई,
जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ॥36॥
और देवता चित्त ना धरई,
हनुमत सेइ सर्व सुख करई ॥37॥
संकट कटै मिटै सब पीरा,
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ॥38॥
जै जै जै हनुमान गुसाईँ,
कृपा करहु गुरु देव की नाईं ॥39॥
जो सत बार पाठ कर कोई,
छूटइ बंदि महा सुख होई ॥40॥

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा,
होय सिद्धि साखी गौरीसा,
तुलसीदास सदा हरि चेरा,
कीजै नाथ ह्रदय महं डेरा,

पवन तनय संकट हरण्, मंगल मूरति रूप ॥
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप ॥

Sunday, June 9, 2013

.सोचो ; साथ क्या ले जाओंगे यारो

प्रिय दोस्तों ,
नमस्कार ...कल मैंने पुछा था ....सोचो ; साथ क्या ले जाओंगे यारो .....

उसका सीधा सा जवाब है ... हम कुछ भी साथ लेकर नहीं आये थे ... लेकिन हाँ, जाते समय , बहुत कुछ साथ जायेंगा , हमारा भलापन, हमारी अच्छाई , हमारा प्रेम , हमारी दया , हमारी क्षमा , जीवन के वो पल , जिनमे हमने इस दुनिया के लिए सोचा , और दुसरो के लिए निस्वार्थ भाव से कुछ किया .... बस यही है जो साथ जायेंगा , बहुत समय पहले , शायद एक साल पहले मैंने एक पोस्ट लगाई थी :::  when death comes there will be only two questions ....... first - did you love and second - did you give ...  बस यही सार है जीवन का ..... प्रणाम ...

सदा आपका 

विजय 

Tuesday, June 4, 2013

सत्य

प्रिय आत्मन , 
नमस्कार .
मैं कुछ देर पहले ओशो के पत्र पढ़ रहा था . जो की उन्होंने अपने सन्यासियों को लिखा था . एक पत्र था जो उन्होंने अपने मित्र और सन्यासी श्री कोठारी जी को लिखा था . 
उसमे उन्होंने कहा था " हम चाहना ही नहीं जानते , वरना सत्य कितना निकट है " ये वाक्य मेरे मन में समां गया . कितनी सच्ची बात है . हा सच में ही नहीं जानते की हमें क्या चाहिए . या हमारी वास्तव में चाहत क्या है . नहीं तो ज्ञान से हमारी दूरी कितनी है . बिलकुल भी नहीं . 
तो सत्य यही है की हम ये जान ले की हमें क्या पाना है , हमारी चाहत क्या है . इजी फिर उसके बाद सारी तलाश खत्म हो जायेंगी . सब कुछ हमारे सामने दर्पण के तरह होंगा . तो मित्रो , आईये उस सत्य की खोज करे. और अपने आपको उसमे डुबो ले. 
प्रणाम आपका ही विजय

Thursday, May 30, 2013

एक बोध कथा



जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी - जल्दी करने की इच्छा होती है , सब कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है , और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं , उस समय ये बोध कथा , " काँच की बरनी और दो कप चाय " हमें याद आती है । 
दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं ... 
उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बडी़ बरनी ( जार ) टेबल पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची ... उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या बरनी पूरी भर गई ? हाँ ... आवाज आई ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे - छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये h धीरे - धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी , समा गये , फ़िर से प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्या अब बरनी भर गई है , छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ ... कहा अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले - हौले उस बरनी में रेत डालना शुरु किया , वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई , अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्यों अब तो यह बरनी पूरी भर गई ना ? हाँ .. अब तो पूरी भर गई है .. सभी ने एक स्वर में कहा .. सर ने टेबल के नीचे से चाय के दो कप निकालकर उसमें की चाय जार में डाली , चाय भी रेत के बीच स्थित थोडी़ सी जगह में सोख ली गई ... 
प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया – 
इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो .... 
टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान , परिवार , बच्चे , मित्र , स्वास्थ्य और शौक हैं , 
छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी , कार , बडा़ मकान आदि हैं , और 
रेत का मतलब और भी छोटी - छोटी बेकार सी बातें , मनमुटाव , झगडे़ है .. 
अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती , या कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं भर पाते , रेत जरूर आ सकती थी ... 
ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है ... यदि तुम छोटी - छोटी बातों के पीछे पडे़ रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये अधिक समय नहीं रहेगा ... मन के सुख के लिये क्या जरूरी है ये तुम्हें तय करना है । टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले करो , वही महत्वपूर्ण है ... पहले तय करो कि क्या जरूरी है ... बाकी सब तो रेत है .. 
छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे .. अचानक एक ने पूछा , सर लेकिन आपने यह नहीं बताया कि " चाय के दो कप " क्या हैं ? प्रोफ़ेसर मुस्कुराये , बोले .. मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया ... 
इसका उत्तर यह है कि , जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे , लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये । 

Sunday, May 5, 2013

कबीर ...!!



कस्तूरी कुँडली बसै, मृग ढूँढे बन माहिँ।
ऐसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहिँ॥

प्रेम ना बाड़ी उपजे, प्रेम ना हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रुचे, सीस देई लै जाय॥

माला फेरत जुग भया, मिटा ना मन का फेर।
कर का मन का छाड़ि के, मन का मनका फेर॥

माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया सरीर।
आसा तृष्णा ना मुई, यों कह गये कबीर॥

झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।
खलक चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद॥

वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारण, साधु धरा शरीर॥

साधु बड़े परमारथी, धन जो बरसै आय।
तपन बुझावे और की, अपनो पारस लाय॥

सोना, सज्जन, साधु जन, टुटी जुड़ै सौ बार।
दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एकै धकै दरार॥

जिहिं धरि साध न पूजिए, हरि की सेवा नाहिं।
ते घर मरघट सारखे, भूत बसै तिन माहिं॥

मूरख संग ना कीजिए, लोहा जल ना तिराइ।
कदली, सीप, भुजंग-मुख, एक बूंद तिहँ भाइ॥

तिनका कबहुँ ना निन्दिए, जो पायन तले होय।
कबहुँ उड़न आँखन परै, पीर घनेरी होय॥

बोली एक अमोल है, जो कोइ बोलै जानि।
हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आनि॥

ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को सीतल करे, आपहुँ सीतल होय॥

लघुता ते प्रभुता मिले, प्रभुता ते प्रभु दूरी।
चींटी लै सक्कर चली, हाथी के सिर धूरी॥

निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय॥

मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं।
मुकताहल मुकता चुगै, अब उड़ि अनत ना जाहिं॥

शिक्षा ....!!


सत्य के दिशा में सबसे बड़ा अपराध तो तब हो जाता है , जब हम सत्य के संबंध में रूढ़ धारणाओं को बच्चो के ऊपर थोपने का आग्रह करते है ! यह अत्यंत घातक दुराग्रह है ! 

परमात्मा और आत्मा के संबंध में विश्वास या अविश्वास बच्चो पर थोपे जाते है ! गीता, कुरान, कृष्ण , महावीर उन पर थोपे जाते है ! इस भांति सत्य के संबंध में उनकी जिज्ञासा पैदा ही नही हो पाती है ! वे स्वयं के प्रश्नों को ही उपलब्ध नही हो पाते है , और तब स्वयं के समाधानों को खोज लेने का तो सवाल ही नही है ! 

बने-बनाये तैयार समाधानों को ही वे फिर जीवनभर दुहराते रहते है ! उनकी स्थिति तोतो के जैसी हो जाती है ! पुनरुक्ति चिंतन नही है ! पुनरुक्ति तो जड़ता है ! सत्य किसी और से नही पाया जा सकता है, उसे तो स्वयं ही खोजना और पाना होता है ! 

---- ओशो

Monday, April 29, 2013

अपेक्षा


मेरे प्रिय आत्मन ; 
नमस्कार 

आज आपको बताऊ , जीवन में सारे दुखो का कारण मात्र और मात्र अपेक्षा ही है . मानव का ये स्वभाव है की हम हर किसी  से अपेक्षा करते है . और कभी कभी ये अपेक्षाए जरुरत से ज्यादा हो जाती है और जब हमें , हमारी अपेक्षाए पूरी होती नहीं दिखाई देती; तब क्रोध, क्षोभ और दुःख [ निराशा भी ] हमारे साथी बन जाते है और हम अपना सुन्दर जीवन नष्ट कर देते है. 

अपेक्षा जरुरी है , ये हमारे स्वप्नों को अग्नि देती है , पर अति अपेक्षा ही दुःख देती है . इसलिए उम्मीद करे पर ज्यादा नहीं . 

आपको प्रेम .
विजय 

Friday, April 26, 2013

जरा सोचिये तो ...!



कामयाब व्यक्ति .....!!!



अनुशासन

हर घर में अगर अनुशासन का पालन किया जाए तो युवाओं द्वारा किए जाने वाले अपराधों में 95 प्रतिशत तक कमी जाऐगी । 
--- जे एडगर हूवर

Sunday, April 21, 2013

प्रतिज्ञा

प्रतिज्ञा करें कि छोटों के साथ नरमी से, बड़ों के साथ करूणा से, संघर्ष करने वालों के साथ हमदर्दी से और कमजोर व ग़लती करने वालों के साथ सहनशीलता से पेश आने की। क्‍योंकि हम अपने जीवन में कभी न कभी इनमें से किसी न किसी स्थिति से गुजरते है। 
--- लायड शीयरर

Monday, March 25, 2013

|| गीता में नवधा भक्ति ||


भक्ति ही एक ऐसा साधन है जिसको सभी सुगमता से कर सकते हैं और जिसमें सभी मनुष्यों का अधिकार है | इस कलिकाल में तो भक्ति के समान आत्मोद्धार के लिए दूसरा कोई सुगम उपाय है ही नहीं ; क्योंकि ज्ञान , योग , तप , त्याग आदि इस समय सिद्ध होने बहुत ही कठिन है | संसार में धर्म को मानने वाले जितने लोग हैं उनमें अधिकाँश ईश्वर - भक्ति को ही पसंद करते हैं | जो सतयुग में श्रीहरी के रूप में , त्रेतायुग में श्रीराम रूप में , द्वापरयुग में श्रीकृष्ण रूप में प्रकट हुए थे , उन प्रेममय नित्य अविनाशी , सर्वव्यापी हरी को ईश्वर समझना चाहिए | महऋषि शांडिल्य ने कहा है ' ईश्वर में परम अनुराग [ प्रेम ] ही भक्ति है |' देवर्षि नारद ने भी भक्ति - सूत्र में कहा है ' उस परमेश्वर में अतिशय प्रेमरूपता ही भक्ति है और वह अमृतरूप है |' भक्ति शब्द का अर्थ सेवा होता है | प्रेम सेवा का फल है और भक्ति के साधनों की अंतिम सीमा है | जैसे वृक्ष की पूर्णता और गौरव फल आने पर ही होता है इसी प्रकार भक्ति की पूर्णता और गौरव भगवान में परम प्रेम होने में ही है | प्रेम ही उसकी पराकाष्ठा है और प्रेम के ही लिए सेवा की जाती है | इसलिए वास्तव में भगवान में अनन्य प्रेम का होना ही भक्ति है |
भक्ति के प्रधान दो भेद हैं - एक साधनरूप , जिसको वैध और नवधा के नाम से भी कहा है और दूसरा साध्यरूप , जिसको प्रेमा - प्रेमलक्षणा आदि नामों से कहा है | इनमें नवधा साधनरूप है और प्रेम साध्य है | श्रीमद्भागवत में प्रह्लादजी ने कहा है ' भगवान विष्णु के नाम , रूप , गुण और प्रभाव आदि का श्रवण , कीर्तन , और स्मरण तथा भगवान की चरणसेवा , पूजन और वन्दन एवं भगवान में दासभाव , सखाभाव और अपने को समर्पण कर देना - यह नौ प्रकार की भक्ति है |' इस उपर्युक्त नवधा भक्ति में से एक का भी अच्छी प्रकार अनुष्ठान करने पर मनुष्य परम पद को प्राप्त हो जाता है ; फिर जो नवों का अच्छी प्रकार से अनुष्ठान करने वाला है उसके कल्याण में तो कहना ही क्या है ?
[ १ ] श्रवण - भगवान के प्रेमी भक्तों द्वारा कथित भगवान के नाम , रूप , गुण , प्रभाव , लीला , तत्त्व , और रहस्य की अमृतमयी कथाओं का श्रधा और प्रेमपूर्वक श्रवण करना एवं प्रेम में मुग्ध हो जाना श्रवणभक्ति का स्वरूप है | गीता [ श्लोक ४ / ३४ ; १३ / २५ ] में भगवान कहते हैं ' हे अर्जुन ! उस ज्ञान को तू समझ ; श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य के पास जाकर उनको दंडवत प्रणाम करने से , उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से तत्त्व को जानने वाले वे ज्ञानी - महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे |'
[ २ ] कीर्तन - भगवान के नाम , रूप , गुण , प्रभाव , चरित्र , तत्त्व और रहस्य का श्रधा और प्रेमपूर्वक उच्चारण करते - करते शरीर में रोमांच , कंठावरोध , अश्रुपात , हृदय की प्रफुल्लता , मुग्धता आदि का होना कीर्तन - भक्ति का स्वरूप है | गीता [ श्लोक ९ / ३० , ३१ ; १८ / ६८ - ६९ ; ] में कीर्तन - भक्ति का महत्त्व बताया गया है |
[ ३ ] स्मरण - भगवान को स्मरण करना ही भक्ति के ' प्राण ' है | केवल स्मरण - भक्ति से सारे पाप , विघ्न , अवगुण , और दुखों का अत्यंत अभाव हो जाता है | गीता [ श्लोक ६ / ३० ; ८ / ७ - ८ ; ८ / १४ ; ९ / २२ ; १२ / ६ - ८ ; १८ / ५७ - ५८ ] में भगवान ने स्मरण - भक्ति का ही महत्त्व बताया है |
[ ४ ] पाद सेवन - जिनके ध्यान से पापराशि नष्ट हो जाती है , भगवान के उन चरणकमलों का चिरकाल तक चिंतन करना चाहिए | भगवान की चरणकमल रुपी नौका ही संसार - सागर से पार उतारनेवाली है |
[ ५ ] अर्चन - जो लोग इस संसार में भगवान की अर्चना - पूजा करते हैं वे भगवान के अविनाशी आनंदस्वरूप परमपद को प्राप्त हो जाते हैं | गीता [ श्लोक १८ / ४६ ] में बताया है की भगवान की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है | गीता [ श्लोक ९ / २६ ] में भगवान कहते हैं ' शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ पत्र , पुष्प , फल और जल आदि मैं सगुणरूप से प्रकट होकर प्रीतसहित खाता हूँ |'
[ ६ ] वन्दन - समस्त चराचर भूतों को परमात्मा का स्वरूप समझकर शरीर या मन से प्रणाम करना और ऐसा करते हुए भगवतप्रेम में मुग्ध होना वन्दन - भक्ति है | गीता [ श्लोक ११ / ४० ] में इसका स्वरूप बताया गया है | [ ७ ] दास्य - भगवान के गुण , तत्त्व , रहस्य और प्रभाव को जानकर श्रधा - प्रेमपूर्वक उनकी सेवा करना और उनकी आज्ञा का पालन करना दास्य -भक्ति है | [ ८ ] सख्य - भगवान के तत्त्व , रहस्य , महिमा को समझकर मित्र भाव से उनमें प्रेम करना और प्रसन्न रहना [ श्लोक ४ / ३ ; १८ / ६४ ] सख्य - भक्ति है | [ ९ ] आत्मनिवेदन - जिस मनुष्य ने भगवान का आश्रय लिया है उसका अंत:करण शुद्ध हो जाता है एवं वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है [ श्लोक ७ / १४ ; ९ / ३२ ; ९ / ३४ ; १८ / ६२ ; १८ / ६६ ] आदि में शरणागति का महत्त्व बताया गया है | || इति ||

Sunday, March 17, 2013

ज़िन्दगी


मेरे आत्मन ,
सोचिये तो .....!!




ईश्वर


प्रिय आत्मन ;
चाणक्य ने कहा है कि ईश्वर मूर्तियों में नहीं , बल्कि आपकी भावनाओं में रहता है और आत्‍मा आपका मन्दिर है। 
आईये इन शब्दों को मन से ग्रहण करे और जीवन को सुखमय बनाए .
प्रणाम 
आपका सेवक 
विजय 

Wednesday, February 20, 2013

ईश्वर का स्वरूप

एक महात्मा से किसी ने पूछा- 'ईश्वर का स्वरूप क्या है?' 

महात्मा ने उसी से पूछ दिया-'तुम अपना स्वरूप जानते हो?' 

वह बोला- 'नहीं जानता।' 

तब महात्मा ने कहा- 'अपने स्वरूप को जानते नहीं जो साढ़े तीन हाथ के शरीर में 'मैं-मैं कर रहा है और संपूर्ण विश्व के अधिष्ठान परमात्मा को जानने चले हो। पहले अपने को जान लो, तब परमात्मा को तुरंत जान जाओगे। 

एक व्यक्ति एक वस्तु को दूरबीन से देख रहा है। यदि उसे यह नहीं ज्ञान है कि वह यंत्र वस्तु का आकार कितना बड़ा करके दिखलाता है, तो उसे वस्तु का आकार कितना बड़ा करके दिखलाता है, तो उसे वस्तु के सही स्वरूप का ज्ञान कैसे होगा? 


अतः अपने यंत्र के विषय में पहले जानना आवश्यक है। हमारा ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा संसार दिखलाता है। हम यह नहीं जानते कि वह दिखाने वाला हमें यह संसार यथावत्‌ ही दिखलाता है या घटा-बढ़ाकर या विकृत करके दिखलाता है। 

गुलाब को नेत्र कहते हैं- 'यह गुलाबी है।' नासिका कहती है- 'यह इसमें एक प्रिय सुगंध है।' त्वचा कहती है- 'यह कोमल और शीतल है।' चखने पर मालूम पड़ेगा कि इसका स्वाद कैसा है। पूरी बात कोई इंद्री नहीं बतलाती। सब इन्द्रियां मिलकर भी वस्तु के पूरे स्वभाव को नहीं बतला पातीं।

स्वामी प्रेमानन्द पुरी 

तुम्हारा जीवन तुम पर निर्भर है.....ओशो


तुम्हारा जीवन तुम पर निर्भर है.....ओशो

न कोई कर्म, न कोई किस्मत, न कोई ऐतिहासिक आदेश- तुम्हारा जीवन तुम पर निर्भर है। उत्तरदायी ठहराने के लिए कोई परमात्मा नहीं, सामाजिक पद्धति या सिद्धांत नहीं है। ऐसी स्थिति में तुम इसी क्षण सुख में रह सकते हो या दुख में।
स्वर्ग अथवा नरक कोई ऐसे स्थान नहीं हैं जहाँ तुम मरने के बाद पहुँच सको, वे अभी इसी क्षण की संभावनाएँ हैं। इस समय कोई व्यक्ति नरक में हो सकता है, अथवा स्वर्ग में। तुम नरक में हो सकते हो और तुम्हारे पड़ोसी स्वर्ग में हो सकते हैं।

एक क्षण में तुम नरक में हो सकते हो और दूसरे ही क्षण स्वर्ग में। जरा नजदीक से देखो, तुम्हारे चारों ओर का वातावरण परिवर्तित होता रहता है। कभी-कभी यह बहुत बादलों से घिरा होता है और प्रत्येक चीज धूमिल और उदास दिखाई देती है और कभी-कभी धूप खिली होती है तो बहुत सुंदर और आनंदपूर्ण लगता है।

ओशो